कोई एनजीओ, जिसके पास पैसे की कमी नहीं है, अपनी मनमर्जी काम करता रहेगा, चाहे वह कानून विरुद्ध ही क्यों न हो। लेकिन ऐसा करने के पहले, वह बड़ी संख्या में सेवानिवृत्त अधिकारियों, जजों, प्रभावशाली नेताओं आदि को अपने ‘बोर्ड या ट्रस्ट’ में शामिल कर लेगा। उनका काम कुछ खास नहीं होगा, लेकिन उन्हें मोटा वेतन देगा, जिसे ‘प्रशासनिक खर्च’ कहा जाएगा। अब अगर कानून उस पर कार्यवाही करने का प्रयास करेगा, तो वह इन सेवानिवृत्त नामचीन लोगों की फौज सामने कर देगा। ‘आंखों की शर्म’ और ‘वरिष्ठों के सम्मान’ की दुहाई प्रत्यक्ष-परोक्ष शब्दों में दी जाएगी, और कानून मुंह ताकता रह जाएगा। फिर भी अगर बात न बनी, तो कोई छोटा-मोटा कर्मचारी सारा दोष अपने सिर पर ले लेगा और वास्तविक कर्ताधर्ता साफ बच जाएंगे।

-डॉ सत्यवान सौरभ

एनजीओ स्वैच्छिक संगठन हैं, जो सामाजिक उद्देश्य और सामाजिक न्याय की दिशा में काम करते हैं।  ये निजी संगठन लोगों का दुख-दर्द दूर करने, निर्धनों के हितों का संवर्द्धन करने, पर्यावरण की रक्षा करने, बुनियादी सामाजिक सेवाएँ प्रदान करने अथवा सामुदायिक विकास के लिये गतिविधियाँ चलाते है। उन्होंने नागरिक समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया है। गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, खासकर धर्मनिरपेक्षता और नागरिक कल्याण के क्षेत्र में। भारत में, बड़ी संख्या में गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयास करते हैं। धार्मिक या सांस्कृतिक जड़ों की परवाह किए बिना सभी नागरिकों के लिए सहिष्णुता, समझ और समान अधिकारों को बढ़ावा देना, धर्मनिरपेक्षता की वकालत उनका एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। धार्मिक सद्भाव और समझ को बढ़ावा देने के लिए, कई गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) अंतरधार्मिक संवाद और समुदाय-निर्माण कार्यक्रम आयोजित करते हैं।

महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और गरीबी उन्मूलन जैसे क्षेत्रों में सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के माध्यम से, गैर सरकारी संगठन सक्रिय रूप से नागरिकों की भलाई में योगदान करते हैं। उनके समुदाय-आधारित प्रयास अक्सर सरकारी उपायों द्वारा छोड़ी गई कमियों को दूर करते हैं, विशेष रूप से अलग-थलग और वंचित क्षेत्रों में। भारत में मानवाधिकारों पर नज़र रखने और उन्हें बढ़ावा देने के लिए गैर सरकारी संगठन आवश्यक हैं। वे यह गारंटी देने का प्रयास करते हैं कि लोग कानूनी प्रणाली तक पहुंच सकें, पूर्वाग्रह से सुरक्षित रहें, और राज्य और गैर-राज्य दोनों संस्थाओं द्वारा उल्लंघन से सुरक्षित रहें। एनजीओ के फंडिंग स्रोतों, पारदर्शिता और घरेलू मुद्दों में संदिग्ध हस्तक्षेप के बारे में चिंताओं का हवाला देते हुए, भारत सरकार हाल के वर्षों में उनकी अधिक बारीकी से निगरानी और विनियमन कर रही है। विदेशी अंशदान अधिनियम के तहत अब गैर-सरकारी संगठनों के लिए विदेशी फंडिंग पर अधिक प्रतिबंध हैं, जो उनके संचालन को और अधिक कठिन बना देता है।

विदेशी फंडिंग पर कड़े प्रतिबंधों ने कई गैर सरकारी संगठनों की स्थिर वित्तीय स्थिति बनाए रखने की क्षमता को प्रभावित किया है, जिससे कार्यक्रमों और संचालन को लागू करने की उनकी क्षमता सीमित हो गई है। इसका मुख्य रूप से उन संस्थानों पर प्रभाव पड़ा है जो अपने धन का एक बड़ा हिस्सा विदेशी दानदाताओं से प्राप्त करते हैं। हाल ही में धन शोधन निवारण अधिनियम कानूनों में संशोधन किए गए हैं, जिससे गैर सरकारी संगठनों और राजनीतिक दलों के लिए विदेशी धन तक पहुंच मुश्किल हो गई है। आयकर अधिनियम में संशोधन के माध्यम से नवीनीकरण प्रमाण पत्र को अनिवार्य बनाने से घरेलू फंडिंग भी प्रभावित हुई है। भारत में स्वैच्छिक संगठनों की विदेशी फंडिंग को एफसीआरए अधिनियम के तहत विनियमित किया जाता है और इसे गृह मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित किया जाता है। अधिनियम यह सुनिश्चित करते हैं कि विदेशी योगदान प्राप्तकर्ता उस निर्धारित उद्देश्य का पालन करें जिसके लिए ऐसा योगदान प्राप्त किया गया है। अधिनियम के तहत संगठनों को हर पांच साल में अपना पंजीकरण कराना होता है।

इसकी आवश्यकता इसलिए हुई कि कोई एनजीओ, जिसके पास पैसे की कमी नहीं है, अपनी मनमर्जी से काम करता रहेगा, चाहे वह कानून विरुद्ध ही क्यों न हो। लेकिन ऐसा करने के पहले, वह बड़ी संख्या में सेवानिवृत्त अधिकारियों, जजों, प्रभावशाली नेताओं आदि को अपने ‘बोर्ड या ट्रस्ट’ में शामिल कर लेगा। उनका काम कुछ खास नहीं होगा, लेकिन उन्हें मोटा वेतन देगा, जिसे ‘प्रशासनिक खर्च’ कहा जाएगा। अब अगर कानून उस पर कार्यवाही करने का प्रयास करेगा, तो वह इन सेवानिवृत्त नामचीन लोगों की फौज सामने कर देगा। ‘आंखों की शर्म’ और ‘वरिष्ठों के सम्मान’ की दुहाई प्रत्यक्ष-परोक्ष शब्दों में दी जाएगी, और कानून मुंह ताकता रह जाएगा। फिर भी अगर बात न बनी, तो कोई छोटा-मोटा कर्मचारी सारा दोष अपने सिर पर ले लेगा और वास्तविक कर्ताधर्ता साफ बच जाएंगे। अगर किसी भी बिन्दु पर आपको महसूस होता है कि देश की कार्यपालिका में, विधायिका में, न्यायपालिका में, मीडिया में, राजनीतिक प्रक्रियाओं में विदेशी पैसों से चल रहे एनजीओ का हस्तक्षेप बहुत भारी है, तो आपको सबसे पहले उस एनजीओ को मिले विदेशी पैसे की ओर देखना चाहिए।

यही कारण है कि तमाम धरपकड़ और कानूनी सख्ती के बावजूद बहुत सारे गैर-सरकारी संगठन और मिशनरी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल रहे। इन मिशनरियों का व्यवहार कन्वर्जन के कारखानों जैसा है, और दीर्घकालिक उद्देश्य भारतीय समाज में विभाजनकारी रेखाओं को गहरा और चौड़ा करते जाने का है। गैर सरकारी संगठनों (कुछ अपवादों को छोड़कर) का तंत्र इतना ढीठ है कि किसी दंगे में संलिप्तता पकड़े जाने पर भी किसी गैर सरकारी संगठन को लज्जा महसूस नहीं होती। वह सिर्फ चुप्पी साध कर बैठ जाता है और इतने को ही पर्याप्त मान लेता है। अब स्थिति यह है कि कानून को यह साबित करना पड़ रहा है कि भारत भूमि पर संप्रभुता भारत के कानूनों की है। और यह स्थिति शायद तब तक रहे, जब तक गैर सरकारी संगठनों की भारी-भरकम मशीनरी इन कानूनों में कोई छिद्र नहीं तलाश लेती। यह एक सतत युद्ध है। इसी को दूसरे ढंग से देखिए। दर्जनों एनजीओ विदेशों से इतना चंदा प्राप्त करें, जिसमें किसी भी एक एनजीओ को मिला चंदा बहुत बड़ा न लगे।

लेकिन एक बार पैसा भारत पहुंच जाने के बाद वे अपनी रकम को एक बिन्दु पर एकत्रित कर लें। अब यह बड़ा पैसा भी हो जाएगा, विदेश से इसका सीधा संबंध भी नहीं होगा। गैर सरकारी संगठनों द्वारा अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए शिक्षाविदों, कार्यकर्ताओं, सेवानिवृत्त नौकरशाहों से युक्त एक राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद बनाई जानी चाहिए। अवैध और बेहिसाब धन की निगरानी और विनियमन के मामले में गृह और वित्त मंत्रालयों के बीच बेहतर समन्वय होना चाहिए। गैर सरकारी संगठनों और स्वैच्छिक संगठनों की वित्तीय गतिविधियों पर नजर रखने के लिए एक नियामक तंत्र समय की मांग है। नागरिक आज उन प्रक्रियाओं में सक्रिय भूमिका निभाने के इच्छुक हैं जो उनके जीवन को आकार देती हैं और यह महत्वपूर्ण है कि लोकतंत्र में उनकी भागीदारी मतदान की रस्म से आगे बढ़े और इसमें सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता, समावेशन आदि को बढ़ावा देना शामिल होना चाहिए।

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