जब आस्था में अश्लीलता का तड़का लगा दिया जाता है तो वह न सिर्फ उपहास का कारण बन जाती है बल्कि बहुसंख्यक लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र समाज को प्रेम, उदारता, सम्मान व सद्भाव का संदेश देता है। पर अफसोस, राम के चरित्र व आदर्शों को प्रस्तुत करने वाली रामलीला आज के दौर में अश्लीलता परोसने का साधन बन गई है। संपर्क साधनों का विकास, विशेष रूप से टेलीविज़न धारावाहिक, रामलीलाओं के दर्शकों में कमी का कारण बन रहा है, और इसलिए रामलीलाएँ, लोगों और समुदायों को एक साथ लाने की अपनी प्रमुख भूमिका खो रही हैं। आधुनिकता की चकाचौंध ने नई पीढ़ी को हमारी संस्कृति,सभ्यता एवं संस्कारों से अलग कर दिया है। नई पीढ़ी ने अपने आपको इंटरनेट,लैपटॉप, मोबाइल की दुनिया तक ही सीमित कर लिया है। उसे बहरी दुनिया से कोई सरोकार नहीं रह गया है। आज नई पीढ़ी हमारे परम्परागत तीज त्योहारों को भूलती जा रही है। इन लोगों को मेला,रामलीला या दूसरे सांस्कृतिक कार्यक्रम समय की बर्बादी नज़र आने लगे है। जिसके फलस्वरूप हमारे कार्यक्रमों के तौर तरीकों में परिवर्तन आये है और भावना बदली है।
-डॉ सत्यवान सौरभ
रामलीला, जिसका शाब्दिक अर्थ “राम का नाटक” है, रामायण महाकाव्य का एक प्रदर्शन है जिसमें दृश्यों की एक श्रृंखला में गीत, कथन, गायन और संवाद सम्मिलित होते हैं। यह पूरे उत्तर भारत में हर साल शरद ऋतु में अनुष्ठान कैलेंडर के अनुसार दशहरे के त्योहार के दौरान प्रदर्शित किया जाता है। अयोध्या, रामनगर और बनारस, वृंदावन, अल्मोड़ा, सत्तना और मधुबनी की रामलीलाएँ सबसे अधिक प्रतिनिधिक हैं। रामायण का यह मंचन देश के उत्तर में, सबसे लोकप्रिय कहानी कहने की कला वाले रूपों में से एक, रामचरितमानस, पर आधारित है। रामायण के नायक राम की महिमा को समर्पित इस पवित्र ग्रंथ की रचना सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास द्वारा, संस्कृत महाकाव्य को सभी के लिए उपलब्ध कराने के उद्देश्य से, हिंदुस्तानी में की गयी थी। अधिकतर रामलीलाएँ दस से बारह दिनों तक चलने वाले प्रदर्शनों की एक श्रृंखला के माध्यम से रामचरितमानस के प्रसंगों का वर्णन करती हैं, लेकिन रामनगर के जैसी कुछ, अक्सर पूरे एक महीने तक चलती हैं। राम के वनवास से लौटने का जश्न मनाते हुए दशहरे के पर्व के समय सैकड़ों बस्तियों, कस्बों और गाँवों में त्योहारों का आयोजन किया जाता है। रामलीला राम और रावण के बीच युद्ध का स्मरण करती है और इसमें देवताओं, ऋषियों और विश्वासियों के बीच संवादों की एक श्रृंखला सम्मिलित है। भारत में भी रामलीला के ऐतिहासिक मंचन का ईसा पू्र्व का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है।
लेकिन 1500 ईं में गोस्वामी तुलसीदास(1497–1623) ने जब आम बोलचाल की भाषा ‘अवधी’ में भगवान राम के चरित्र को ‘श्री रामचरित मानस’ में चित्रित किया तो इस महाकाव्य के माध्यम से देशभर खासकर उत्तर भारत में रामलीला का मंचन किया जाने लगा। माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों ने शुरूआती रामलीला का मंचन (काशी, चित्रकूट और अवध) रामचरित मानस की कहानी और संवादों पर किया। इतिहासविदों के मुताबिक देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं सदी के आरंभ में हुई थी। इससे पहले रामबारात और रुक्मिणी विवाह के शास्त्र आधारित मंचन ही हुआ करते थे। साल 1783 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने हर साल रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया। भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में नाटक की उत्पत्ति के संदर्भ में लिखा गया है। ‘नाट्यशास्त्र’ की उत्पत्ति 500 ई॰पू॰ 100 ई॰ के बीच मानी जाती है। नाट्यशास्त्र के अनुसार नाटकों विशेष रूप से लोकनाट्य के जरिए संदेश को प्रभावी रूप से जनसामान्य के पास पहुंचाया जा सकता है। भारत भर में गली-गली, गांव-गांव में होने वाली रामलीला को इसी लोकनाट्य रूपों की एक शैली के रूप में स्वीकारा गया है। राम की कथा को नाटक के रूप में मंच पर प्रदर्शित करने वाली रामलीला भी ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तर्ज पर वास्तव में कितनी विविध शैलियों वाली है।
साहित्यिक कृतियों से अलग-अलग भाषा-बोलियों, समाज-स्थान और लोकगीतों में रामलीला की अलग ही विशेषता है। जिसका असर उसके मंचन पर भी नजर आता है। सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही ऐतिहासिक रामनगर की रामलीला, अयोध्या, चित्रकूट की रामलीला, अस्सी घाट (वाराणसी की रामलीला) इलाहाबाद और लखनऊ की रामलीलाओं के मचंन की अपनी-अपनी शैली और विशेषता है। हो सकता है कि शायद इसीलिए यह मुहावरा चल पड़ा हो… ‘अपनी-अपनी रामकहानी’। रामलीला का नाटकीय प्रभाव प्रत्येक दृश्य के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रतिमाओं के सिलसिले से उपजता है। दर्शकों को गाने और कथन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता है। रामलीला जाति, धर्म या उम्र के भेद के बिना पूरी आबादी को एक साथ लाती है। सभी ग्रामीण सहजता से भाग लेते हैं, भूमिकाएं निभाते हैं या विभिन्न प्रकार की संबंधित गतिविधियों में भाग लेते हैं, जैसे कि मुखौटा और पोशाक बनाना, शृंगार बनाना, पुतलों और रोशनी की तैयारी करना। हालाँकि, संपर्क साधनों का विकास, विशेष रूप से टेलीविज़न धारावाहिक, रामलीलाओं के दर्शकों में कमी का कारण बन रहा है, और इसलिए रामलीलाएँ, लोगों और समुदायों को एक साथ लाने की अपनी प्रमुख भूमिका खो रही हैं। आधुनिकता की चकाचौंध ने नई पीढ़ी को हमारी संस्कृति,सभ्यता एवं संस्कारों से अलग कर दिया है। नई पीढ़ी ने अपने आपको इंटरनेट,लैपटॉप, मोबाइल की दुनिया तक ही सीमित कर लिया है। उसे बाहरी दुनिया से कोई सरोकार नहीं रह गया है। आज नई पीढ़ी हमारे परम्परागत तीज त्योहारों को भूलती जा रही है। इन लोगों को मेला,रामलीला या दूसरे सांस्कृतिक कार्यक्रम समय की बर्बादी नज़र आने लगे है। जिसके फलस्वरूप हमारे कार्यक्रमों के तौर तरीकों में परिवर्तन आये है और भावना बदली है।
छोटे शहरों और गाँवों में होने वाली रामलीला के दौरान आयोजकों द्वारा अपने वित्तीय लाभ के लिए कराए जाने वाले बार-बालाओं के अश्लील नृत्य जैसे गंभीर मुद्दे आज चिंता का विषय बन गए है। लगातार घटती सामाजिक चेतना और पारंपरिक-सांस्कृतिक मूल्यों के पतन के समय में धार्मिकता को बचाए रखने के लिए संघर्ष की जरूरत है। आज के पतनशील दौर में प्राचीन एवं पवित्र हिन्दू धर्म ग्रन्थ रामायण में विश्वास और समाज के शक्तिशाली लोगों के बीच संघर्ष को प्रतिबिंबित करता है जो दर्शकों को आकर्षित करने के लिए अश्लील नृत्यों को शामिल करके अपने वित्त और व्यक्तिगत लाभ के लिए रामलीला का शोषण करते हैं। जब आस्था में अश्लीलता का तड़का लगा दिया जाता है तो वह न सिर्फ उपहास का कारण बन जाती है बल्कि बहुसंख्यक लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र समाज को प्रेम, उदारता, सम्मान व सद्भाव का संदेश देता है। पर अफसोस, राम के चरित्र व आदर्शों को प्रस्तुत करने वाली रामलीला आज के दौर में अश्लीलता परोसने का साधन बन गई है। श्रीराम हम सभी के आदर्श हैं। रामलीला के दौरान बार-बालाओं के अश्लील नृत्य कार्यक्रम आयोजित करना सर्वथा अनुचित है। ऐसे कार्यक्रम से बचना चाहिए। इससे समाज में गलत संदेश जाता है और लोगों की भावना प्रभावित होती है।