हमारा देश एक भावुक देश है। यहां धर्म और जाति के नाम पर लोगों को लड़ाना बड़ा ही सरल है। यह भविष्य में भी होगा, बस क्रांति की इस ज्योत को जलाए रखना। यही आपको सही राह दिखाएगी। फुले फिल्म का यह संवाद आज और भी प्रासंगिक लगता है, जहां कश्मीर का पहलगाम का आतंकी हमला मजहब पूछकर हुआ है।
समाज सुधारक, लेखक, देश के पहले महात्मा ज्योतिराव फुले उर्फ ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी व समाजसुधारक सावित्रीबाई फुले पर आधारित यह फिल्म कई विवादों के बाद आखिरकार सिनेमाघरों में रिलीज हुई।
फिल्म कहां से शुरू होती है?
129 मिनट की इस फिल्म की कहानी शुरू होती है साल 1887 में पूना (पुणे) में फैले प्लेग से, जिसमें सावित्रीबाई एक बच्चे को पीठ पर लादे मेडिकल कैंप की ओर बढ़ती हैं। वहां से कहानी अतीत में जाती है, जहां ज्योतिबा फुले के पिता को यह पसंद नहीं है कि वह अपनी पत्नी को शिक्षा दें।
दोनों उस समाज में जहां लड़कियों को पढ़ाना पाप माना जाता है, वहां छुपकर एक ब्राह्मण के घर में पिछड़ी जाति की लड़कियों के लिए स्कूल चलाते हैं।
रूढ़ीवादी उच्च समाज जाति के ठेकेदार उनका स्कूल तोड़ देते हैं, लेकिन इससे ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई के कदम डगमगाते नहीं हैं। वह अपना घर छोड़कर देते हैं, लेकिन बच्चियों को पढ़ाने, समाज की कुरीतियों और कुप्रथाओं को समाप्त करने की ओर अग्रसर रहते हैं। अंत में उन्हें देश के पहले महात्मा की उपाधि दी जाती है।