आजकल लोग निजी झगड़ों और रिश्तों की परेशानियों को सोशल मीडिया पर लाइव आकर सार्वजनिक करने लगे हैं, जहां आधी-अधूरी सच्चाई दिखाकर सहानुभूति बटोरी जाती है। ‘सुट्टा आली’ और ‘मुक्का वाली’ जैसे मामलों में देखा गया कि जब दूसरा पक्ष सामने आया, तो पहले समर्थन करने वाले लोग उलझन में पड़ गए। सोशल मीडिया अब इंसाफ़ का मंच नहीं, तमाशा बनता जा रहा है, जहां रिश्ते कंटेंट बनकर बर्बाद हो रहे हैं। इस डिजिटल दिखावे से बाहर निकलने का रास्ता संवाद, संयम और सच्चाई पर आधारित समझदारी है। रिश्तों को बचाने के लिए पहले उन्हें सार्वजनिक न करें, बल्कि निजी स्तर पर सुलझाने की कोशिश करें। आधी सच्चाई दिखाकर न्याय मांगना रिश्तों की मौत का कारण बन सकता है।
-डॉ सत्यवान सौरभ
घर के अंदर की बातें अब घर के नहीं रहीं। एक वक़्त था जब दीवारों के भीतर जो होता था, वही दीवारों में दफ़न होता था। पर अब दीवारें भी वाई-फाई से जुड़ चुकी हैं और रिश्ते डेटा पैक पर टिके हैं। बात-बात पर फेसबुक लाइव, इंस्टा स्टोरी, और यूट्यूब व्लॉग — यही अब नए जमाने का रिश्ता-निपटान मंच बन गए हैं। कोई थोड़ा-बहुत झगड़ा हुआ नहीं, लोग कैमरा ऑन करके “ऑडियंस” के सामने आंसू बहाने लगते हैं। और उस रोते चेहरे के पीछे कितनी सच्चाई है, इसका किसी को अंदाज़ा नहीं होता — क्योंकि कहानी का दूसरा पहलू अक्सर बेमौसम आता है, या कभी आता ही नहीं।
रोते हुए लाइव, और सहानुभूति का सैलाब
आजकल रिश्तों में सहनशीलता नहीं, स्क्रिप्टिंग आई है। जैसे ही किसी झगड़े या मनमुटाव की चिंगारी उठती है, लोग अपने कैमरे चालू कर लेते हैं और “लाइव” आकर खुद को पीड़ित घोषित कर देते हैं। आवाज़ में कंपकंपी, आंखों में आंसू, और शब्दों में दर्द — सब कुछ इतना ‘रियल’ होता है कि देखने वाला पल भर में ‘इमोशनल इन्वेस्ट’ कर बैठता है।
पर सवाल ये है कि क्या वो सच्चाई का पूरा चेहरा देख रहा है, या बस आधा?
आज की मिसाल लीजिए — सोशल मीडिया पर पहले ‘सुट्टा आली’ प्रकरण छाया रहा और अब ‘मुक्का वाली’ मामला। दोनों में ही एक पक्ष ने पहले सोशल मीडिया पर आकर सहानुभूति बटोरी। लोग टूट पड़े समर्थन में, ट्रोलिंग शुरू हुई, इल्ज़ामों की झड़ी लग गई। लेकिन जब कुछ समय बाद दूसरा पहलू सामने आया, तो वही हमदर्द दोराहे पर खड़े दिखे। कोई खिसियाया, कोई चुप हो गया, और कुछ ने हाथ जोड़ लिए — “हमें तो पूरी बात पता ही नहीं थी।”
सोशल मीडिया: इंसाफ़ का नया अदालत?
अब सवाल उठता है — क्या सोशल मीडिया कोई अदालत है, जहां एकतरफा सबूत पेश करके दूसरे पक्ष को बिना सुने सज़ा सुनाई जा सकती है? क्या हम सब यूज़र्स अब जज बन चुके हैं? और अगर हां, तो हमारी अदालत में अपील की व्यवस्था कहां है?
दिक्कत ये है कि आजकल लोग जज नहीं, जजमेंटल बन चुके हैं। किसी भी मुद्दे को बिना सोचे, बिना समझे, बिना जांचे — बस वायरल होने की स्पीड से नापते हैं। ‘कौन सही है’ से ज़्यादा अहम हो गया है ‘कौन पहले लाइव आया’।
रिश्ते अब रील और रेटिंग का हिस्सा बन गए हैं
जब एक रिश्ते की दरार को सार्वजनिक किया जाता है, तो उसका असर केवल उस रिश्ते पर नहीं, समाज पर भी पड़ता है। यह एक विकृति बनती जा रही है, जहां निजी दर्द सार्वजनिक मनोरंजन बन रहा है। और इसे प्रोत्साहन मिलता है व्यूज़, लाइक्स और फॉलोवर्स की भूख से। एक जमाना था जब लोग अपने रिश्तों को बचाने के लिए कुछ भी कर जाते थे — आज लोग लाइक और शेयर के लिए अपने रिश्ते खुद बर्बाद कर देते हैं। मीडिया से ज़्यादा, मिडियाई मानसिकता दोषी है
यह केवल ‘मीडिया ट्रायल’ का मुद्दा नहीं है। असली समस्या उस मानसिकता की है जो कैमरा ऑन होते ही खुद को पीड़ित घोषित कर देती है और दर्शकों को जूरी बना देती है। यह ‘हाफ ट्रुथ पॉलिटिक्स’ अब राजनीति तक सीमित नहीं रही — यह अब हमारे घरों में घुस चुकी है। लोग अपने ग़ुस्से और दुख को शब्दों में नहीं, स्क्रिप्टेड कंटेंट में ढाल रहे हैं। और दर्शक भी, असल में मदद करने के बजाय, तमाशबीन बने रहते हैं — स्क्रीन के उस पार तालियाँ बजाते हुए।
रिश्ते सहारे से ज़्यादा, स्क्रीन पर टिके हैं
इस डिजिटल युग में रिश्ते अब संवाद से नहीं, कंटेंट से चलने लगे हैं। पार्टनर से बात करने की जगह, लोग सोशल मीडिया पर ‘इंडीरेक्ट’ पोस्ट करते हैं। लड़ाई होती है, तो स्टोरी लगती है — “सब कुछ सहने की भी एक हद होती है”। और फिर लाइक, कमेंट और शेयर की बाढ़ आती है, जो उस रिश्ते के फटे कपड़े में और कील ठोक देती है।क्या कोई रास्ता है इस ‘डिजिटल ड्रामा’ से बाहर निकलने का? बिलकुल है। पर शुरुआत हमें ही करनी होगी। किसी भी झगड़े या विवाद को सार्वजनिक करने से पहले, अपने सबसे करीबी से निजी तौर पर बात करें। संवाद हर समस्या का पहला समाधान है। अगर मामला गंभीर है, तो परिवार, मित्र या थैरेपिस्ट की मदद लें। इंस्टाग्राम या यूट्यूब पर वीडियो बनाकर दुनिया से इंसाफ की उम्मीद न करें। अगर आप किसी का वीडियो या पोस्ट देख रहे हैं, तो एकतरफा निर्णय न लें। हर कहानी के दो पहलू होते हैं, और कभी-कभी सच्चाई दोनों के बीच कहीं होती है। हर रिश्ता अपने आप में एक दुनिया होता है। उसे सार्वजनिक चौराहे पर न उधेड़ें। एक दिन वही दुनिया आपके खिलाफ खड़ी हो सकती है।
आज जब हर व्यक्ति अपने हाथ में मीडिया लेकर घूम रहा है, तब सबसे बड़ा ज़िम्मेदार भी वही है। कैमरा ऑन करना आसान है, पर सच्चाई को ईमानदारी से दिखाना मुश्किल। रिश्ते भरोसे से बनते हैं, और भरोसे की बुनियाद संवाद से मजबूत होती है, तमाशे से नहीं। हर बार लाइव आकर रोना-धोना करने से सहानुभूति तो मिल सकती है, लेकिन रिश्ते नहीं बचते। और जब दूसरा पक्ष सामने आता है, तो फिर न सिर्फ़ रिश्ता, बल्कि भरोसा भी मरता है — उस इंसान का भी और उस समाज का भी, जो बस ‘लाइव’ देखकर न्याय करने को तैयार बैठा था। इसलिए अगली बार जब कोई रोता हुआ वीडियो सामने आए — ज़रा रुकिए। सवाल पूछिए, दोनों पक्षों को सुनिए। क्योंकि असल इंसाफ वही है जो तटस्थ हो, और इंसाफ़ के बिना कोई भी तमाशा बस एक और रिश्ते की मौत होती है — ‘डिजिटल स्टेज’ पर।

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