भारत में चुनावी वर्ष नज़दीक आते ही राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में आने के लिये लोक-लुभावनी घोषणाएँ करने लगती हैं, जैसे मुफ्त में बिजली-पानी, लैपटॉप, साइकिल आदि देने के वायदे करना आदि। यह प्रचलन लोकतंत्र में चुनाव लड़ने के लिये सभी को समान अवसर मिलने के मूल्य के उल्लंघन को तो दर्शाता ही है, साथ ही सत्ता में आने पर जब सरकार नागरिकों के कर से निर्मित ‘लोकनिधि’ से ही अपने वायदे पूरे करती है, तो निधि के इस दुरुपयोग से विकास की गति भी धीमी पड़ती है। अरे! तुम क्या जानो/ तुम्हारी जान और इज्जत/ बदन की खाल, मुफ्त में खिंचवाते हैं/ शोर न उठे तुम्हारे संहारो का/ दूसरा मुद्दा ले आते हैं/ आरक्षण और संविधान को भी/ मन भर गरियाते हैं/ समय समय पर/ जोर-जोर लतियाते हैं/ और तो और! समाज का दुश्मन/ तुमको ही बतलाते हैं/ इसीलिए तो चुनावी घोषणा पत्र लाते हैं/ रही सही अब सारा काम/ प्रशासन और मीडिया से करवाते हैं/ तभी तो मुद्दों से हटकर/ नई मुद्दा खड़ा करवाते हैं/ पीठ में पड़ी डंडे की मार/ उसपर भी परत चढ़ाते हैं/ तुम ठहरे सपने सजोने वाले/ कागज के लुभावने वायदों/ दारू साड़ी में बिक जाते हो/ इसीलिए तो/ चुनावी घोषणा पत्र लाते हैं।
-प्रियंका सौरभ
मेनिफेस्टो यानी घोषणा पत्र, यह नाम किसी भी चुनाव से पहले चर्चा में आ जाता है। यह वह दस्तावेज होता है जो चुनाव लड़ने वाले सभी राजनीतिक दल जारी करते हैं। इसमें वे जनता के सामने अपने वादे रखते हैं। इसके जरिए बताते हैं कि वे चुनाव जीतने के बाद जनता के लिए क्या-क्या करेंगे। उनकी नीतियां क्या होंगी। सरकार किस तरह से चलाएंगे और उससे जनता को क्या फायदा मिलेगा। चुनाव के लिए घोषणा पत्र प्रोहिबिटरी पीरियड में नहीं जारी किया जाएगा। यह निर्देश जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1951 की धारा 126 के अनुसार दिया गया है। इसी अधिनियम के अनुसार यह भी कहा गया है कि अगर चुनाव कई चरणों में होते हैं तो भी निषेधात्मक अवधियों (प्रोहिबिटरी पीरियड) में घोषणा पत्र नहीं जारी किया जाएगा। बताते चलें कि आरपी अधिनियम की धारा 126 के अनुसार यह प्रोहिबिटरी पीरियड चुनाव खत्म होने से पहले के 48 घंटे हैं यानी मतदान के 48 घंटे पहले से घोषणा पत्र जारी करने पर रोक लग जाती है। हालांकि, वास्तविकता में घोषणा पत्र वादों का पिटारा मात्र होता है, जिनसे जनता को लुभा कर वोट मांगा जाता है। ये वादे कितने पूरे होते हैं, यह अलग चर्चा का विषय है। आख़िरकार ये चुनावी वादे और क़र्ज़माफ़ी देश के हित में है या फिर उसे और गर्त में ले जाने का काम करेंगे|-
राजनीतिक पार्टी ही नही/ तुम्हारे सौदागर हैं! हम/ आइये! तुम्हारी कीमत लगाते हैं/ तुम चुप ही रहना/ मुँह न खोलना/ तुम्हारी हैसियत जानते हैं/ झूठ बोलकर, लालच दिखाकर/ सपनों की दुनिया में/ सैर करवाते हैं/ इसीलिए तो/ चुनावी घोषणा पत्र लाते हैं।
भारतीय राजनीति में यह सामान्य तौर पर देखा गया है कि जब चुनाव नज़दीक आते हैं तब विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ अपना-अपना ‘घोषणा-पत्र’ जारी करती हैं। इस घोषणा-पत्र में उन पार्टियों की भावी योजनाएँ और वायदे लिखे होते हैं। घोषणा-पत्र जारी करना चुनाव आचार संहिता के अनुकूल है। परंतु, समय के साथ-साथ राजनीतिक पार्टियाँ इस अधिकार का दुरुपयोग करने लगी हैं। नियमों के अनुसार, घोषणा-पत्रों में नीतिगत योजनाएँ सम्मिलित होनी चाहिये जैसे अमुक पार्टी सत्ता में आई तो उसकी शिक्षा और रोजगार को लेकर ‘ऐसी’ नीति होगी आदि। वर्तमान में यह चलन हो गया है कि राजनीतिक पार्टियाँ वोटरों को लुभाने के लिये मुफ़्त उपहारों की घोषणा करने लगी हैं। जैसे- यदि हम सत्ता में आए तो टेलीविज़न मुफ़्त देंगे या लैपटॉप या बिजली के बिल माफ कर देंगे आदि। सत्ताधारी पार्टी या बड़ी राजनीतिक पार्टियों की ऐसी घोषणा किसी स्वतंत्र उम्मीदवार के ‘चुनाव में समान अवसर के अधिकार’ का सीधा उल्लंघन है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस संबंध में चुनाव आयोग को उचित दिशा-निर्देश तैयार करने का आदेश दिया है। दूसरा मुद्दा यह है कि मुफ़्त उपहारों के वायदे पूरे करने के लिये सत्ता में आई पार्टी ‘लोकनिधि’ पर अनावश्यक भार डालती है और जो पैसा पूंजी निर्माण में लगना चाहिये था, उससे मुफ़्त उपहार या सब्सिडी दी जाती है। यह सत्य है कि जनता के पैसे से जनता के लिये ही ऐसा किया जा रहा है परंतु यह मुफ़्तखोरी अन्ततः लोकतंत्र के लिये ही घातक होती है।-
दर शांत शासन प्रशासन/ देने की! प्रमुखता से बात उठाते हैं/ जीतने के बाद/ इसके विपरीत करवाते हैं/ सुंदर जीवन क्या/ सपने भी छीन लेते हैं/ नक्सली, देशद्रोही/ हरिजन और वनवासी/ कहकर शोषण-उत्पीड़न/ करवाते हैं!/ चुनाव आते ही/ उन्हें भी हिन्दू बताते हैं/ इसीलिए तो/ चुनावी घोषणा पत्र लाते हैं।
अमेरिका जैसे देश में आमतौर पर घोषणा पत्र में आर्थिक-विदेश नीति, स्वास्थ्य की देखभाल, शासन में सुधार, पर्यावरण से जुड़े मुद्दों और इमिग्रेशन आदि को शामिल किया जाता है। इनमें किसी तरह के खास लाभ की बात नहीं की जाती है। भारत में मुद्दों को तो शामिल किया ही जाता है, घोषणा पत्र में विशेष फायदों को भी मिलाने की परंपरा सी देखी जाती है। यहां कई बार राजनीतिक दल मुफ्त रेवड़ियां (फ्रीबीज) तक को अपने घोषणा पत्र में शामिल कर लेते हैं, जिसका मुद्दा सुप्रीम कोर्ट तक में उठ चुका है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर भारतीय चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों के लिए घोषणा पत्र जारी करने को एक निश्चित गाइडलाइन तय कर दी हैं। कोई भी मुफ्त वितरण (फ्रीबीज) वास्तव में सभी लोगों पर असर डालता है। ऐसे में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव नहीं हो पाते। साथ ही देश में ऐसा कोई प्रावधान भी नहीं है जिससे मेनिफेस्टो में की जाने वाली घोषणाओं को कंट्रोल किया जा सके।इसलिए कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा कि राजनीतिक दलों से बात करके गाइडलाइन तैयार करे। यह भी कहा था कि इस गाइडलाइन को राजनीतिक पार्टियों और चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के लिए चुनाव आचार संहिता में भी सम्मिलित किया जा सकता है। घोषणा पत्र में संविधान के आदर्शों और सिद्धांतों के खिलाफ कुछ भी नहीं होगा और यह आदर्श आचार संहिता का पालन करेगा। राजनीतिक पार्टियों को उन वादों से बचना होगा, जो चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता को कम कर सकते हैं या मतदाताओं पर गलत प्रभाव डाल सकते हैं। राजनीतिक दल घोषणा पत्र में किए गए वादों की जरूरत को बताएंगे और वही वादे किए जाएंगे जो पूरे किए जा सकते हैं। यह भी बताना होगा कि इन वादों को पूरा करने के लिए वित्तीय जरूरतें किस तरह पूरी होंगी?
लोकतंत्र की मजबूती इसमें नही है/ ठगी हुई मताधिकार सही नही है/ गरीब मजदूर लाचार/ अभी नही हैं समझे/ लालच! शोषण उत्पीड़न दमन/ सबकुछ भूला देती है/ पाँच सालों की पिटाई/ पलभर में मिटा देती है/ अगले ही पल दलितों को/ नँगा करके! सड़कों पर दौड़ाते हैं/ इसीलिए तो/ चुनावी घोषणा पत्र लाते हैं।